सब्र चाहिए मुझे।
परेशां हूँ ।
निकलता हूँ।
अपने डेरे से रोज।
उसके लिए।
कहाँ मिलेगा।
ये सब्र।
सब्र चाहिए मुझे।
मन अपने गति से।
भी अधिक।
ढूंढ़ता है उसे।
पूरी दुनिया।
देखता है मन।
पूरे सब्र से।
लेकिन सब है।
बस नही है।
वो ही।
सब्र नही है।
कहाँ ये सब्र।
सब्र चाहिए मुझे।
सब कहते है।
सब्र से रहो।
सब्र से खाओ।
सब्र से पीओ।
सब्र से घूमो।
सब्र से जीओ।
सब्र से पढ़ो।
इश्क़ में सब्र रखो।
सब्र से चलो।
सब्र से चिंतन करो।
कहाँ ये सब्र।
मुझे चाहिए सब्र।
पोथी भी पढ़ी।
वो भी सब्र से।
सुना है।
ये सब्र को।
समझा देती है।
यहाँ भी।
मन अपनी गति में।
सब्र न रखा ।
फिर न मिला मुझे।
तो बस वो ही सब्र।
कहाँ है ये सब्र।
सब्र चाहिए मुझे।
फिर से सोचा।
घूमते है जहाँ।
पढ़ते है पोथी।
लेकिन सबके बाद।
मिला सच में।
सब्र के रूप में
एक सब्र का सच।
सब सब्र देते है।
सब सब्र बताते है।
सब्र मिलता है।
अपने आप से ।
अपने सब्र से।
अपने आत्म से।
अपने सोच से।
अपने भरम।
उसे खत्म करने से।
मिलता है सब्र।
सच को सब्र से।
सुनने में।
अब यही है सब्र।
अभी मिला है सब्र।
ढूंढ़ लिया है सब्र।
अब नही छूटेगा।
ऐसा सब्र।
मुझे चाहिए था सब्र।
अब सब्र से हूँ।
बस यही तो है सब्र।
परेशां हूँ ।
निकलता हूँ।
अपने डेरे से रोज।
उसके लिए।
कहाँ मिलेगा।
ये सब्र।
सब्र चाहिए मुझे।
मन अपने गति से।
भी अधिक।
ढूंढ़ता है उसे।
पूरी दुनिया।
देखता है मन।
पूरे सब्र से।
लेकिन सब है।
बस नही है।
वो ही।
सब्र नही है।
कहाँ ये सब्र।
सब्र चाहिए मुझे।
सब कहते है।
सब्र से रहो।
सब्र से खाओ।
सब्र से पीओ।
सब्र से घूमो।
सब्र से जीओ।
सब्र से पढ़ो।
इश्क़ में सब्र रखो।
सब्र से चलो।
सब्र से चिंतन करो।
कहाँ ये सब्र।
मुझे चाहिए सब्र।
पोथी भी पढ़ी।
वो भी सब्र से।
सुना है।
ये सब्र को।
समझा देती है।
यहाँ भी।
मन अपनी गति में।
सब्र न रखा ।
फिर न मिला मुझे।
तो बस वो ही सब्र।
कहाँ है ये सब्र।
सब्र चाहिए मुझे।
फिर से सोचा।
घूमते है जहाँ।
पढ़ते है पोथी।
लेकिन सबके बाद।
मिला सच में।
सब्र के रूप में
एक सब्र का सच।
सब सब्र देते है।
सब सब्र बताते है।
सब्र मिलता है।
अपने आप से ।
अपने सब्र से।
अपने आत्म से।
अपने सोच से।
अपने भरम।
उसे खत्म करने से।
मिलता है सब्र।
सच को सब्र से।
सुनने में।
अब यही है सब्र।
अभी मिला है सब्र।
ढूंढ़ लिया है सब्र।
अब नही छूटेगा।
ऐसा सब्र।
मुझे चाहिए था सब्र।
अब सब्र से हूँ।
बस यही तो है सब्र।
रचनाकार-
अंकित चौरसिया
दिल्ली विश्वविद्यालय।
अंकित चौरसिया
दिल्ली विश्वविद्यालय।
Nice poetry
ReplyDeleteSuper poetry bhaiya
ReplyDeleteWoww superbb👍
ReplyDeleteसब्र से ही ढूंढें सब्र?!
ReplyDeleteसब्र की तलाश और सब्र की परिभाषा दोनों जायज़ है ।
ReplyDeleteऔर आपकी कविता मानव मन के उस सब्र की परीक्षा को व्यक्त करती है।
बहुत खूब
Wow nic line bhai...
ReplyDeleteSuch a wonderful good morning blog..
ReplyDeleteयही वो सब्र है जिसे खोजता हर कोई यहाँ है ... अब तो आदत है ऐसी कि सब्र मिल भी जाये तो ये यकीन नहीं कि क्या यही सब्र है ... बहुत अच्छा बयाँ किया है ।
ReplyDeletewell done brother....
ReplyDeleteबहुत ही
ReplyDeletesuper
ReplyDeleteImpressive...
ReplyDeleteGreat...
ReplyDeleteGreat lines Bhaiya ..keep it up!
ReplyDeleteNice poetry
रह-नवर्द-ए-बयाबान-ए-ग़म सब्र कर सब्र कर
ReplyDeleteकारवाँ फिर मिलेंगे बहम सब्र कर सब्र कर
- नासिर
तेरे सिवा सब कुछ मिला जमाने में
ReplyDeleteतू मिले तो मोहब्बत आ जाये
Very nicely expressed . Good
ReplyDeleteसुन्दर
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