Friday, 25 May 2018

मैं और मेरा संघर्ष।

जब मैं आया।
दिल्ली विश्वविद्यालय में।
सोचकर आया था।
इलाहाबाद की तरह।
भाषा पढ़ूँगा यहाँ स्वदेशी।
लेकिन भैया।
यहाँ पढाई जाती थी।
कठिन अंग्रेजी।
फिर थोड़ा सिसके।
और मेरे कदम।
थोड़ा पीछे खिसके।
फिर सोचा।
न भैया।
मैं तो रहूँगा।
बिलकुल अडिग।
क्योंकि मैं आया था।
अपनी माँ की उम्मीदों सहित।
जब मैं आया।
दिल्ली विश्वविद्यालय में।

Thursday, 17 May 2018

राजनीति और लोकतंत्र।

जब हुआ मतदान।
खूब बाँटा गया।
दारू और राशन-दान।
देश की जनता।
समझ वैठी।
यही है।
राजनीति का।
अमूल्य-दान।
लेकिन।
भईया जब वैठे।
गद्दी पर।
वही राशन-दान।
बन गया।
बिलकुल विषपान।
क्योंकि अब हुआ।
अपना-अपना।
राम-राम।
लेकिन।
इसका क्या हो।
समाधान।
इसलिए।
भारतीय राजनीतिक पार्टियों को।
अंकित चौरसिया का।
प्रणाम।🙏

Tuesday, 15 May 2018

हमारा इलाहाबाद।अपना इलाहाबाद।

मैं बात कर रहा हूँ इलाहाबाद शहर की। उस शहर की जहाँ आया हुआ हरेक एकाएक उसका हो जाता हैं।उसे अपना बना लेता है।उसमें डूब जाता है। उस शहर में न जाने कौन सी चुम्बक है जो अनवरत रूप से खींचती रहती है।कही भी रहो, हजारो किलोमीटर दूर रहने के बाबजूद भी वो चुम्बकीय क्षेत्र उसे नही छोड़ता। जो यहाँ रहा है, इससे बाहर जाकर भी अपने जेहन में एक इलाहाबाद जरूर रखता है। यहाँ रहना भी एक सौभाग्य सा है बाकई इस शहर की मिट्टी में दार्शनिको की सोच और साहित्य का समागम अयुतसिद्ध रूप से अन्तर्निहित है।जिसे हर पल महसूस भी किया जा सकता है।यही कारण है यहाँ रहने वाला प्रत्येक वासी और प्रवासी दर्शन और साहित्य से अछूता नही रह सका। यही सौभाग्य मिला था मुझे भी कभी। अगर कोई इलाहाबाद पर कुछ भी लिखता है तो आज भी अजब सी परेशानी होती है और उस पल ही पूरा इलाहाबादी हो जाता हूँ। वैसे लिखते-लिखते कीड गंज से गऊघाट, यूइंग क्रिश्चियन कालेज जिसमे मैं पढ़ा,सोचा और बहुत कुछ समझा, कटरा से यूनिवर्सिटी चौराहा से होते हुए हॉस्टल, लक्ष्मी टॉकीज से मम्फोर्डगंज एक फिर से मुझे, मेरे जेहन में स्मृति रूप में यादगार लम्हो को ताजा कर दिया। वैसे इस शहर को मैं कुछेक शब्दो में सिमट नही सकता । आगे भी लिखूँगा।मिलते है फिर यादगार लम्हो के साथ।जय इलाहाबाद।जय दर्शन-नगरी।जय त्रिवेणी।जय प्रयागराज।

Monday, 14 May 2018

शायरी -कुछ बाकि है।

दीदार-ए-फ़कत की इल्तिज़ा।
मंजूर होना अभी भी बाकि है।
मयखाने में शाम-ए-गुफ्तगू।
इस रूह को ।
उस रूह में होना।
अभी बाकि है।
ऐ हुश्न की मल्लिका।
तेरा ये जान जाना।
अभी भी बाकि है।
थम जाये ये साँसे।
एक दो लम्हो के लिए भी।
ऐसा बंदोबस्त।
अभी भी बाकि है।
मौसम भी अपना।
रुख बदलने लगे है।
लेकिन तेरा ।
आना और जाना ।
अभी भी बाकि है।

Monday, 7 May 2018

शायरी- दिलो में गुफ्तगू।

आपको चाहना ।
मेरी आदतों का पुलिंदा बन गया।
जब सोचा छोड़ दूँगा तुम्हे।
वही शाम मेरी शहादत का रहनुमा बन गया।
अब बता ऐ खुदा!
किसने बनाई ऐसी कुदरत?
क्योंकि मेरी एक-एक साँस।
उसका नपा-तुला तराजू बन गया।
लेकिन एक तो जबरजस्त बात है उसमें।
जब-जब सोचा।
वो दिन ही शमाँ से बंध गया।
न जाने क्यों।
आपको चाहना।
मेरी आदतों का पुलिंदा बन गया।

Sunday, 6 May 2018

शायरी-चार दिन की चाँदनी।

वो मेरे जेहन में उतर रहे थे मानो इस कदर।
कि जैसे चढ़ रहा हो शराब का धीरे-२ असर।
हालाँकि मुलाकात न हुई थी दर-बदर।
मेरे दोस्तों बस यही था पागलपन सा मोहब्बत वाला सफर।

Saturday, 5 May 2018

शायरी-हुश्न-ए-मोहतरमा।

हे अल्लाह तुमने इस नजीर(मोहतरमा) को कैसे बनाया होगा।
मैं नही जानता तुम्हारे दिमाग में ये ख्वाब कहाँ से आया होगा।
लेकिन तुमने जब इस नजीर को दुनिया में उतारा होगा।
शायद ही कभी किसी बन्दे को चैन आया होगा।