मैं बात कर रहा हूँ इलाहाबाद शहर की। उस शहर की जहाँ आया हुआ हरेक एकाएक उसका हो जाता हैं।उसे अपना बना लेता है।उसमें डूब जाता है। उस शहर में न जाने कौन सी चुम्बक है जो अनवरत रूप से खींचती रहती है।कही भी रहो, हजारो किलोमीटर दूर रहने के बाबजूद भी वो चुम्बकीय क्षेत्र उसे नही छोड़ता। जो यहाँ रहा है, इससे बाहर जाकर भी अपने जेहन में एक इलाहाबाद जरूर रखता है। यहाँ रहना भी एक सौभाग्य सा है बाकई इस शहर की मिट्टी में दार्शनिको की सोच और साहित्य का समागम अयुतसिद्ध रूप से अन्तर्निहित है।जिसे हर पल महसूस भी किया जा सकता है।यही कारण है यहाँ रहने वाला प्रत्येक वासी और प्रवासी दर्शन और साहित्य से अछूता नही रह सका। यही सौभाग्य मिला था मुझे भी कभी। अगर कोई इलाहाबाद पर कुछ भी लिखता है तो आज भी अजब सी परेशानी होती है और उस पल ही पूरा इलाहाबादी हो जाता हूँ। वैसे लिखते-लिखते कीड गंज से गऊघाट, यूइंग क्रिश्चियन कालेज जिसमे मैं पढ़ा,सोचा और बहुत कुछ समझा, कटरा से यूनिवर्सिटी चौराहा से होते हुए हॉस्टल, लक्ष्मी टॉकीज से मम्फोर्डगंज एक फिर से मुझे, मेरे जेहन में स्मृति रूप में यादगार लम्हो को ताजा कर दिया। वैसे इस शहर को मैं कुछेक शब्दो में सिमट नही सकता । आगे भी लिखूँगा।मिलते है फिर यादगार लम्हो के साथ।जय इलाहाबाद।जय दर्शन-नगरी।जय त्रिवेणी।जय प्रयागराज।
सुबह मिलने वाली दही-जलेबी, बन्द और चाय और लगभग सभी विद्यार्थी के यहाँ दोपहर में छौंका लगी दाल-भात का भोजन इन्हें एक डोर में पिरोती है..
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